Wednesday, October 8, 2008

भुलाना नहीं मुझको,

उल्फत की निगेह्बां हूँ भुलाना नहीं मुझको,
मैं ओस शबे ग़म की मिटाना नहीं मुझको,

तो क्या जो तेरे कूचे मैं शोर बहुत है,
दिल अपना भी खंडर तो बनाना नहीं मुझको,

ऐसे ही चले आए मेरी आँख में आँसूं,
आसेबी आईने तू डराना नहीं मुझको.

भटक गए हैं राह तो रोने का सबब क्या,
कहता था नक्शे पा के मिटाना नहीं मुझको...

ज़र्द हो चलें हैं शजर क्या मेरी आह के...
अबके बहार ने भी तो जाना नहीं मुझको....

3 comments:

DUSHYANT said...

subhanllah... keep on writing

रेखा said...

खुबसूरत और शानदार गजल ..

विभूति" said...

उम्दा ग़ज़ल....

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