Thursday, April 12, 2012

"मेघ न बरसा रोया मौन"

मिटटी तो उपजाऊ थी...
पर लुट कर उस में खोया कौन

भूख निगलता
आप ही गलता
सरल भाव सा
सड़े घाव सा
उसे कोई समझाओ जी
मेघ न बरसा रोया मौन
मिटटी तो उपजाऊ थी
पर लुट कर उस में खोया कौन

मूर्छित तन मन
किंचित कण कण
बीज बो रहा
भाग्य सो रहा
कांटो से उसे छुड़ाओ भी
खेत बंजर अमीर हैं लॉन
मिटटी तो उपजाऊ थी
पर लुट कर उस में खोया कौन

4 comments:

virendra sharma said...

मिटटी तो उपजाऊ थी
पर लुट कर उस में खोया कौन
बढ़िया बिम्ब विधान .बढ़िया रचना .

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

वाह वाह क्या बात है! बधाई

उल्फ़त का असर देखेंगे!

विभूति" said...

भावो को रचना में सजाया है आपने.....

विभूति" said...
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