Monday, April 30, 2012

एक सफ़र ऐसा भी हो

एक सफ़र ऐसा भी हो

न मंजिलें हों

रास्ते ही रास्ते हों
...
पेड़ पत्ती फूल पौधे

आसमानी रंग सारे

कैद हों

विस्तार से

स्मृतियों की

स्लेट पर

गाँव गाँव

देश घर -

विदेश से परे कहीं ....

हों रास्ते ही रास्ते

न मंजिलों के वास्ते

हों दौड़ते भागते ...

हो नया सफ़र हर घड़ी

हर गजर....हो सफ़र ....!
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3 comments:

Prakash Jain said...

Bahut khub safar....

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति.....बेहतरीन रचना,...

MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....

yugal said...

आपकी कविता में दार्शनिकता की छाया उसे एक नया आयाम देती है.
युगल गजेन्द्र

www.hamarivani.com