Tuesday, June 3, 2014

बेवजह साहिलों से लड़ूँ

बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ

हर सहर जो वहाँ
दूर तक जा बसी
जिसमें अँगड़ाईयां
ले रही ज़िन्दगी
बहकी आवाज़ हैं
और परछाईंयां
बस वही कुछ समन्दर भरूं
क्या करूँ
बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ

गुनगुनाता रहे
चाँद भी रात भर
झूलती हो सबा
मखमली बाँह पर
रात कोई नया
ख़्वाब करती बयाँ
अब कहीं डूबती चंद यादें कहूँ
क्या करूँ
बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ

कब समझता है दिल
रतजगों की वजह
बेख़बर बारहां
बस मचलता रहा
कब कहाँ से मिली
इसको बेईमानियां
हूँ जो शोला अभी कुछ जलूँ या बुझूँ
क्या करूँ
बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ

है तेरे ज़िक्र में
कैसी ख़ुशबू बता
कि महकता रहे
दर्द अश्कों भरा
साज़िशों  की फ़क़त
कोशिशें दरमियाँ
 बच गया है जो हासिल उसको पढ़ूँ
क्या करूँ
बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ






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