Tuesday, December 18, 2007

मेघ जल बरसा...

मेघ जल बरसा,
बुझा -
अंतरित तृष्णा!

चाँद तू खिल जा,
छुपा -
अपनी व्यथा!

पुष्प फिर सुन्गंदिथ हो जा,
भुला -
भंवरों की दशा!

नदिया फिर बह जा,
उठा -
ज्वार अपना!

मन,शून्यता में,
सुझा -
मुझको रास्ता!!!"

Friday, December 14, 2007

मेरी उलझनों को तरतीब दे कर,
लौट जाना एक हंसी ले कर.

ज़ख्म लगते ही तो भर जाता है,
वार अबके ज़िन्दगी पीछे कर.

तेरे शहर का भी है अजीब निजाम,
खुश है मुझको आइना दे कर.

मुझसे क्या पूछे मेरे बारेमें
सवाल ये मेरे अपनों से कर.

सोना,उठाना,जीना,मरना'शीरीं',
कभी ये सिलसिला अपने लिए कर.
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