मैं भी
नव कविता कहने को थी
शब्द भी थे मेरे पास ....
जाग्रत ...परिपक्कव ... उजास
और सोच
हाँ थी भी
और नहीं भी
वह दृष्टि .... अन्याय को पहचान ले जो
और सत्य ही को जान ले वो
आस पास
देश विदेश में घटित
विवाद वाद
कर रहा जो शर्मसार
जातियों का भेदभाव
और भी न जाने कितना
व्यवहारिक अनुभव बखान था
मगर
इनसे बहुत ऊँचे.. कहीं थे
स्वप्न मेरे और मेरे
सरल आभास
कितनी भी कृत्रिम सही
स्वार्थी, निजी रही
बिना शुब्ध हो
संयमिता को नियम बना
मैं मुस्काई
इनमे खो कर ....
रही सदा ही...
मेरी कविता..... मेरी हो कर !!!
नव कविता कहने को थी
शब्द भी थे मेरे पास ....
जाग्रत ...परिपक्कव ... उजास
और सोच
हाँ थी भी
और नहीं भी
वह दृष्टि .... अन्याय को पहचान ले जो
और सत्य ही को जान ले वो
आस पास
देश विदेश में घटित
विवाद वाद
कर रहा जो शर्मसार
जातियों का भेदभाव
और भी न जाने कितना
व्यवहारिक अनुभव बखान था
मगर
इनसे बहुत ऊँचे.. कहीं थे
स्वप्न मेरे और मेरे
सरल आभास
कितनी भी कृत्रिम सही
स्वार्थी, निजी रही
बिना शुब्ध हो
संयमिता को नियम बना
मैं मुस्काई
इनमे खो कर ....
रही सदा ही...
मेरी कविता..... मेरी हो कर !!!