शब्द मेरा उत्साह ... छंद मेरी वेदना , जीवन मरण ये असाध्य दुःख , केवल कविता ही आत्म सुख !!!
संवाद भर से क्या
हो जाता है कोई परिचित,
और परिचित होकर ऐसे
हो जाता है परिभाषित....
हाँ मनुष्य की सोच
ही तो है सीमित
ऐसे तो होती गढ़ित केवल..
कल्पना, किंचित.....