आज मन बहुत उदास है !!शरीर को छूने वाले हाथ काँपे नहीं होंगे क्या ! उसको नंगा करते हुए उसकी नसों पे दबाव डालते हाथ पैर बाँधते घसीटते हुए जब ले गया उसे तो कौन सा जानवर था उस मर्द के भीतर ? आख़िर क्या है बलात्कार ? स्त्री देह की इच्छा मात्र ? या वासनाओं की तृप्ति ? या फिर शायद ख़ुद को आदम साबित करने का एक भरसक प्रयास करता है मर्द ? किस ग़ुरूर में जीता है यह मर्द ? कि जैसे हमारे समाज में आज की औरत का ऐसा होना मर्द की देन रहा वैसे ही तो मर्द का मर्द हो जाना भी तो औरत के हाथ रहा होगा ? क्यों दी आज़ादी हमने मर्द को सोचने की कि ये उसकी सत्ता है ? कि वो देख सकता है औरत को किसी मजबूर असहाय स्थूल भोगने की वस्तु की तरह ?क्यों दी आख़िर सीता ने अग्निपरीक्षा?कौन से ऋत का पालन करते आगे बढ़ रहे हैं हम? हम औरतों में सोचने वाली क्षमताएँ कहां गईं? कौन से प्रयास होने चाहिए थे दृष्टिकोण बदलने हेतु? दलित कहाँ केवल , हमारे पढ़ें लिखे इलाइट समझे जाने वाले समाज में भी तो यही हश्र है सोच का ! हम औरतें ही तो बीज बोतीं हैं अपनी अगली पीढ़ियों के मन मस्तिष्क में कि लड़की कमज़ोर हैं और डर कर जिए! अपनी अस्मिता को किसी भी तरह छुपा कर बचा कर रक्खे! जबकि ध्यान अधिक उसके अस्तित्व की खोज पर होना था ! सोच को केंद्रित किया जाना चाहिए था उसके मन में अपने पैरों पर खड़े होने की लालसा जाग्रत करने पर ! केवल शिक्षा ही इस शोषण से बचा सकती है अब ऐसा नहीं लगता ! औरत को पत्थर उठाना सीखना होगा ! मर्दों की बनाई दुनिया में महज़ खानापूर्ती का नाम औरत नहीं ! सहनशीलता की देवी कब तक बने रहना होगा ? आज मानवता दोराहे पर खड़ी है ! सही रास्ता दिखाना होगा ! जिसे फ़र्क़ नहीं पड़ता उसे भी सोचने पर मजबूर करना होगा ! देखो कैसे दुहाई दे रही हैं पेड़ से लटकती लाशें ! खोखली हो गईं सारी ऋचाएँ सारे वेद पुराण ग्रंथ ! अब विश्वास नहीं किसी पौराणिक गाथा पर ! रचना होगा समाज फिर नए ढंग से ! अपनी ही मान्यताओं को झकझोरना होगा ! ! लाना तो होगा ही अब बड़ा बदलाव ! सर्व प्रथम अपने भीतर ही !!