उजला सोचती है
वो सोच ही सकती है केवल
ऐसा नहीं है...
मगर सोच ही पा रही है
ऐसा है....
तो उजला सोचती है
सही सलामत पैरों को
नहीं चाहिए आसरा
नहीं चाहिए दान नहीं चाहिए प्राण
नहीं चाहिए मज़बूत हाथों को कंधे
दुनिया भर के
सीधी रीढ़ की हड्डी को भी
नहीं चाहिए
बेगरज़ सहारे
फिर भी क्यूँ ....
क्यूँ अतिरिक्त खोजती
दो आंखें पल पल समर्थन
क्यूँ बांधना चाहता मन
अनगिनत बंधन
और वही...
अदृश्य बैसाखियाँ !!