सुनो, रुक जाओ ना...
क्यूँ अपने हाथों से,
करते तार तार उसकी गरिमा
जिसने पाला,
महीनों अपने कोख मे,
सींचा अपने रक़्त से
तुम पर अपने स्वप्न बुने
तुमने ,
उसे शरीर मात्र बना,
मार्ग पर फेंक दिया
छीन लिया सर्वस्व उसका,
कर नग्न,
भेद शरीर ,आत्मा !!!!
और तुम ...छोड़ दो विलाप..
उठ खड़ी हो जाओ
उखाड़ फेंको विचार ...
वो जो न दे सम्मान....!
नर या नारी से पहले
हो मनुष्य
अंश ईश्वर का...उसकी कृति ,
क्यूँ भेदभाव इतना ...!?
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