अंतत: एक दौड़ ही थी
आगे बढ़ना था सारे घाव भरने थे मगर उम्मीद किसी शाख पर टँगी हरी पत्ती तो नहीं कि सूख कर गिरी और उभर आई नई यह तो स्वार्थी जिज्ञासा से भरी महज़ एक सोच भर है जिसमें अगले पल को पकड़ते इस पल का जीवन हाथ से छूटा जाता है स्मृतियों की गठरी का बोझ भी तो हल्का नहीं होता जो एक बार दब के गिरे वो फिर कभी सहज भर श्वास कहाँ ले पाए चलता जाता है समय मौसमों के साथ बदलता हुआ फिर उम्मीद की आँख फड़कने लगती है और उभर आता है तनाव की आँधियों में सवेरा बस चाहिए संयम परस्पर ,मन की परिधि में मौन गहनतम फिर खोज ही लेगें नई दौड़ के लिए नई पगडंडियाँ ...... |
शब्द मेरा उत्साह ... छंद मेरी वेदना , जीवन मरण ये असाध्य दुःख , केवल कविता ही आत्म सुख !!!
Saturday, September 22, 2018
एक दौड़
ये संसार
ये संसार , उस कविता की अनमनी प्रवृति है
जिसे तुमने रचा पूर्णत: भेद भाव से छोटी छोटी फुलझड़ियों सी हँसी हंस कर तुम बुझ जाते हो ना रात कालिख सी पोतते हुए इस चिरायु ब्रह्माण्ड में कहीं खो जाते हो पूछना चाहती हूँ तुमसे व्यक्तित्व पर अलंकारिक छद्म परतों की संभावनाएँ तुम ने ही रची या स्वच्छंद रहा मनुष्य ऐसा कर पाने में कौन सा रस मिलता रहा है तुम्हें विनाशकारी बिम्ब, विष भरे रोज़ गढ़ते हुए उजाड़ बस्तियों के मसले फूलों के टूटी उम्मीदों लटकती लाशों के .... जैसे तुम्हारी अपूर्ण कविता का ये आख़िरी खंड रचा जा रहा हो सभ्यताओं का विनाश प्रतिबिम्बित है समय के दर्पण पर संवेदनहीनता से यूँ झुलसती तुम्हारी कविता पूर्ण भी हो जाए मगर तुम्हारा अपना ही अस्तित्व खो न जाए ध्यान रखना !! |
Subscribe to:
Posts (Atom)