अंतत: एक दौड़ ही थी
आगे बढ़ना था सारे घाव भरने थे मगर उम्मीद किसी शाख पर टँगी हरी पत्ती तो नहीं कि सूख कर गिरी और उभर आई नई यह तो स्वार्थी जिज्ञासा से भरी महज़ एक सोच भर है जिसमें अगले पल को पकड़ते इस पल का जीवन हाथ से छूटा जाता है स्मृतियों की गठरी का बोझ भी तो हल्का नहीं होता जो एक बार दब के गिरे वो फिर कभी सहज भर श्वास कहाँ ले पाए चलता जाता है समय मौसमों के साथ बदलता हुआ फिर उम्मीद की आँख फड़कने लगती है और उभर आता है तनाव की आँधियों में सवेरा बस चाहिए संयम परस्पर ,मन की परिधि में मौन गहनतम फिर खोज ही लेगें नई दौड़ के लिए नई पगडंडियाँ ...... |
शब्द मेरा उत्साह ... छंद मेरी वेदना , जीवन मरण ये असाध्य दुःख , केवल कविता ही आत्म सुख !!!
Saturday, September 22, 2018
एक दौड़
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment