Wednesday, February 20, 2013

विधाता

हे विधाता
संदेह है
मुझको
क्या परस्पर किसी विरोधाभास
में
मनुष्य रचा तुमने
संवेदनाओं की वेदी चढ़ा इसे
अनगिनत भूमिकाओं में बाँध
तुम हुए विलुप्त यूँ कि
हाथ भी नहीं आते अब
और एक दिन इसी मृत्यु  जीवन
के संघर्ष में
भूल जाएंगे तुम्हे
और तुम्हारा होना न होना
हमारे हाथ होगा
फिर क्या रहोगे तुम विधाता
इसी तरह दीप्त ...?

3 comments:

शिवनाथ कुमार said...

मृत्यु एक सत्य है और इसलिए विधाता भी सदा जहन में बना रहेगा ....
सुन्दर रचना !
सादर !

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे said...

विधाता का हाथ न आना उसकी ताकत को दर्शाता है। कविता में कोमल, सुंदर और सहज भाव है।
drvtshinde.blogspot.com

Vinay said...

नव संवत्सर की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!!

www.hamarivani.com