वह सरोवर में जो मयंक अभिज्ञात है
कहीं दूर थोडा
या वह वृक्ष पर स्वर्ण सा पत्ता
जो टूटा ...जुड़ा थोडा
क्या उसी में तुम कहीं छुप कर बैठे हो
इस वायुमंडल में
जहाँ बन जाते हैं स्वप्न के अनेक महल
या फिर उस सुगंध में
जो मंदिर की प्रज्ज्वलित बत्तियों से
मुझ तक पहुंचती है
तुम हो ...यह ज्ञात है
निकट ही .....अन्तरंग कहीं
छुपते छुपाते हो
स्वतः क्यूँ नहीं दृश्य हो जाते हो
या चाहिए तुम को अनगिनत वर्षों का मौन
या असाध्य बने रहने की तुम्हारी प्रवृत्ति
तुम से छूटती ही नहीं ?
1 comment:
सार्थक सृजन, आभार.
कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें
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