Monday, September 3, 2012

माँ तुझको क्यूँ लगता है

माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ

पूरा दिन बैठ सोफ़े पर
लेपटोप को तकती
दूरभाष पर हंसी ठिठोली
हूँ कितना मैं करती
इस टीवी के स्वप्न लोक
में उलझी हूँ
माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ

छोड़ दिया है पैदल चलना
पहिये चार की गाडी है
थोड़ा सा जो श्रम कर जाऊं
सरपट दौड़ती नाड़ी है
जीवन को मैं सतत मशीनी
समझी हूँ
माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ

बारिश धूप सर्दी और गर्मी
कुछ भी सहन नहीं होता
हीटर एसी उपलब्धि है
या बीमारी को न्योता
बंद खिड़की से सावन
तकती रहती हूँ
माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ


हाँ चाँद को छू आये हम
यह अपनी उपलब्धि है
कितनी जाने बचा सकें
जब विपदा कोई पड़ती है
लेकिन क्या मैं प्रगति का
अर्थ ही ना - समझी हूँ
माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ
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