Sunday, August 30, 2009

मेघ जल बरसा,

मेघ जल बरसा,
बुझा -
अंतरित तृष्णा!

चाँद तू खिल जा,
छुपा -
अपनी व्यथा!

पुष्प फिर सुन्गंदिथ हो जा,
भुला -
भंवरों की दशा!

नदिया फिर बह जा,
उठा -
ज्वार अपना!

मन,शून्यता में,
सुझा -
मुझको रास्ता!!!"

Wednesday, July 1, 2009

हाए हाए ...

बेकार जली, बेकार बुझी, बेवजह मैंने अश्क बहाए,
उसके इश्क में खोकर अपना क्या कर डाला मैंने हाए.

भूके को रोटी,घर बेघर को,बच्चों को तालीम न दी,
मेरे मौला क्या मुझको भी लग जाएगी उनकी हाए.?

मैंने माना जग झूठा है रिश्ते नाते भी ये झूठे हैं,
पर क्यूँ अपनों के खोने पर दिल ये रोता हाए हाए..

बारिश की पहली बूँद ने दिल को था कितना खुशहाल किया,
पानी के एक सैलाब ने लेकिन लेली कितनी जानें ,हाए ...

जो करना है कर डालो जो मेरी मानो तो 'शीरीं',
वक़्त जो ये गुज़र गया तो फिर न रोना हाए हाए

Saturday, April 4, 2009

जग झंझट

अब इस जग झंझट में भेजो,
तो प्रमाण देना...
बीच भंवर में छोड़ दुखी अपनों को,
मुझको बुला न लेना...
अब तो मन मंदिर में बस..
आशंका, भय, क्रोध जले है ...
अमर रहे हर अपना मैं चाहूँ ...पर,
मृत्यु तांडव न्रत्य करे है...
शोक का राक्षस लील रहा ...
माँ के आँचल की विशालता...
जब मृत्यु ही अंत सखा ..तो..
संबंधों की क्या महानता ....!!
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