Wednesday, November 12, 2014

मेरे हिस्से का मीठापन

छलनी से छान लाओ ना
वो मेरे हिस्से का मीठापन
कि सोच की व्याधि
धरातल पर
खार बिखरे हैं
कि चुभते हैं चुभाते हैं
कई सौ मन बनाते हैं
वो सारे फूल से थे
शब्द कहीं खो गए हैं
कि जिनके रंग मेरे थे
वो जिनकी ख़ुशबुओं में जी रही थी
रोज़ थोड़ा और थोड़ा
उन शब्दों ने भला
क्यों मुझ को छोड़ा
अब ये
अबोला स्पर्श तुम्हारा जब
 नई उम्मीद लाया है
तो मुझ को और जीना है
अभी कुछ और जीना है
तो तुम ही लाओ ढूँढ कर वो
मेरे हिस्से का मीठापन



Wednesday, June 4, 2014

झुक रहे कंधे

अब तुम्हारी तंग चाल
मेरे  झुक रहे , कंधे हुए
 झुर्रियों में क़ैद सभी
अतीत के क़िस्से हुए
उफानों  और घाटों का
लेखा जोखा सा हुआ
खुरदुरापन
तुम्हारी हथेलियों का
क्यों
गुज़रना  ही रहता है
बार बार
उन्हीं
 स्मृतियों से
जहाँ तुम चलते थे आगे
मैं
तुम्हारे ठीक पीछे


पूर्णता...

कोई पूर्णता
कभी साधी गई है भला
कि जो साधना है मुझको
सागर
जो है सदियों से वही
और मैं
एक सीमित काल सी
हर बार नई
कैसे निकलूँ
 सीपियों की थाह पाने
मोतियों की पाल बाँधे ....
वह समृद्ध अपने आप में
सदा
और मैंने सोचा
अनादि से
मेरी
 प्रतीक्षा भर करता हुआ

Tuesday, June 3, 2014

बेवजह साहिलों से लड़ूँ

बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ

हर सहर जो वहाँ
दूर तक जा बसी
जिसमें अँगड़ाईयां
ले रही ज़िन्दगी
बहकी आवाज़ हैं
और परछाईंयां
बस वही कुछ समन्दर भरूं
क्या करूँ
बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ

गुनगुनाता रहे
चाँद भी रात भर
झूलती हो सबा
मखमली बाँह पर
रात कोई नया
ख़्वाब करती बयाँ
अब कहीं डूबती चंद यादें कहूँ
क्या करूँ
बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ

कब समझता है दिल
रतजगों की वजह
बेख़बर बारहां
बस मचलता रहा
कब कहाँ से मिली
इसको बेईमानियां
हूँ जो शोला अभी कुछ जलूँ या बुझूँ
क्या करूँ
बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ

है तेरे ज़िक्र में
कैसी ख़ुशबू बता
कि महकता रहे
दर्द अश्कों भरा
साज़िशों  की फ़क़त
कोशिशें दरमियाँ
 बच गया है जो हासिल उसको पढ़ूँ
क्या करूँ
बेवजह साहिलों से लड़ूँ
क्या करूँ
मौज हूँ
मौज हूँ
मौज हूँ






Sunday, June 1, 2014

जगा कर रखना

रात में नींद की चौकसी करता
 फटेहाल मन ..
अब ठोकता है स्मृतियों की लाठी 
फोड़ता है माथा .... 
ध्वस्त धमनियों में शोकाकुल
 ठहाके लगाता है मानवता का चोर ...
 जगा कर रखना , ऐ ! पेड़ों पर ग़दर मचाती हवा ...
" जागते रहो जागते रहो " चिल्लाते हुए मुझे कोसती रहना...
 कि हर पेड़ की हर शाख अब भूतों का अड्डा लगती है और
 एक लाश लटकती है जो उस पर ... मुझ को मुझ सी लगती है ....

प्रार्थना किससे करूँ ......

कविता ...पुल बाँधती थी
भ्रम की रस्सियों से ..
कभी अट्टहास भर थी
कभी ...
हुंकारती सी
कभी गोल गोल
अपनी ही परीधि में
खोजती..
जाने क्या ....
पर अब कविता
गुट बाँधती है..
काटती है अपनी क़िस्में
और छाँटती है
जुडने और जोड़ने की
सब कलाएँ ...
तुम सुन रहे थे...
सहज होने की सभी
संभावनाएँ ,थीं बचीं
अब तुम नहीं तो
सोचती हूँ .... प्रार्थना
किससे करूँ ...








Thursday, May 29, 2014

उदास मन



आज मन बहुत उदास है !!शरीर को छूने वाले हाथ काँपे नहीं होंगे क्या ! उसको नंगा करते हुए उसकी नसों पे दबाव डालते हाथ पैर बाँधते घसीटते हुए जब ले गया उसे तो कौन सा जानवर था उस मर्द के भीतर ? आख़िर क्या है बलात्कार ? स्त्री देह की इच्छा मात्र ? या वासनाओं की तृप्ति ? या फिर शायद ख़ुद को आदम साबित करने का एक भरसक प्रयास करता है मर्द ? किस ग़ुरूर में जीता है यह मर्द ? कि जैसे हमारे समाज में आज की औरत का ऐसा होना मर्द की देन रहा वैसे ही तो मर्द का मर्द हो जाना भी तो औरत के हाथ रहा होगा ? क्यों दी आज़ादी हमने मर्द को सोचने की कि ये उसकी सत्ता है ? कि वो देख सकता है औरत को किसी मजबूर असहाय स्थूल भोगने की वस्तु की तरह ?क्यों दी आख़िर सीता ने अग्निपरीक्षा?कौन से ऋत का पालन करते आगे बढ़ रहे हैं हम? हम औरतों में सोचने वाली क्षमताएँ कहां गईं? कौन से प्रयास होने चाहिए थे दृष्टिकोण बदलने हेतु? दलित कहाँ केवल , हमारे पढ़ें लिखे इलाइट समझे जाने वाले समाज में भी तो यही हश्र है सोच का ! हम औरतें ही तो बीज बोतीं हैं अपनी अगली पीढ़ियों के मन मस्तिष्क में कि लड़की कमज़ोर हैं और डर कर जिए! अपनी अस्मिता को किसी भी तरह छुपा कर बचा कर रक्खे! जबकि ध्यान अधिक उसके अस्तित्व की खोज पर होना था ! सोच को केंद्रित किया जाना चाहिए था उसके मन में अपने पैरों पर खड़े होने की लालसा जाग्रत करने पर ! केवल शिक्षा ही इस शोषण से बचा सकती है अब ऐसा नहीं लगता ! औरत को पत्थर उठाना सीखना होगा ! मर्दों की बनाई दुनिया में महज़ खानापूर्ती का नाम औरत नहीं ! सहनशीलता की देवी कब तक बने रहना होगा ? आज मानवता दोराहे पर खड़ी है ! सही रास्ता दिखाना होगा ! जिसे फ़र्क़ नहीं पड़ता उसे भी सोचने पर मजबूर करना होगा ! देखो कैसे दुहाई दे रही हैं पेड़ से लटकती लाशें ! खोखली हो गईं सारी ऋचाएँ सारे वेद पुराण ग्रंथ ! अब विश्वास नहीं किसी पौराणिक गाथा पर ! रचना होगा समाज फिर नए ढंग से ! अपनी ही मान्यताओं को झकझोरना होगा ! ! लाना तो होगा ही अब बड़ा बदलाव ! सर्व प्रथम अपने भीतर ही !!
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