Friday, June 29, 2012

मेरी कविता..... मेरी हो कर

मैं भी
नव कविता कहने को थी
शब्द भी थे मेरे पास ....
जाग्रत ...परिपक्कव ... उजास
और सोच
हाँ थी भी
और नहीं भी
वह दृष्टि .... अन्याय को पहचान ले जो
और सत्य ही को जान ले वो
आस पास
देश विदेश में घटित
विवाद वाद
कर रहा जो शर्मसार
जातियों का भेदभाव
और भी न जाने कितना
व्यवहारिक अनुभव बखान था
मगर
इनसे बहुत ऊँचे.. कहीं थे
स्वप्न मेरे और मेरे
सरल आभास
कितनी भी कृत्रिम सही
स्वार्थी, निजी रही
बिना शुब्ध हो
संयमिता को नियम बना
मैं मुस्काई
इनमे खो कर ....
रही सदा ही...
मेरी कविता..... मेरी हो कर !!!
 

Wednesday, June 27, 2012

जाप अधूरा

शब्दों की है भीड़
मगर
क्या शब्दों का है चयन ...
सरल ..... ?
जगते -सोते
जीते -मरते
कविता बुनते आद्र नयन...
नहीं कटे
पलछिन
ये दिन
... है आन पड़ी उलझन....
हर जाप अधूरा.. छंद बिना....
और
प्रभु बिना ...जीवन !....
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