Thursday, December 22, 2011

मैं क्यूँ लिखूं ....

मैं क्यूँ लिखूं

नए साल में अपवाद पुराने

रोती माएँ

ठंडे चूल्हे

भूखे बच्चे

कुछ लोगों की भ्रष्ट सोच पर

शहीद होते

सैनिक सच्चे



क्यूँ लिखूं मैं

जब जानू ना

सूखे खेत की रूठी हरियाली

अपने घर के एक कोने में

बैठकर पीते....

चाय की प्याली ....

मेरा लिखना भर लौटा देगा

क्या लुटी हुई अस्मिताएं ?

फिर भला क्यूँ कर जाऊं मैं

पाखंडी औपचारिकताएं ?

नए साल में नई सोच एक

मुझ में विकसित कर देना

पीड़ पराई जान सकूँ

बस इतनी सी तो है प्रार्थना

कुछ ना हो तो मेरा कागज़

कोरा ही तुम रहने देना !

Wednesday, December 21, 2011

नव वर्ष तुम फिर आओगे !

मैंने पूछा
नव वर्ष तुम फिर आओगे !
क्या लाओगे?
स्वार्थ पुराने उन्हें भुनाने
या फिर कुछ नव ताने बाने
मुझे डराने .....?
वो बोला
मैं तो संघर्ष हूँ
नव वर्ष हूँ
जैसे कर्म तुम्हारे होंगे
वैसा ही तो फल लाऊंगा
सुख दुःख दोनों ही लाऊंगा
डरती क्यूँ हो, सहती क्यूँ हो
नई उम्मीद पर
नए स्वप्न मैं दिखलाऊंगा
विपदा सारी हर जाऊँगा
क्रोध लोभ और मोह ,दंभ के
झूठे चटकारे मत भरना
केवल अपना छोड़ ज़रा सा
औरों का भी चिंतन करना
और जो तुम "नूतन" हो तो
बन कर नूतन ही रहना

Thursday, December 15, 2011

कठिन हुआ है कितना देखो यूँही सरल हो जाना ....

कठिन हुआ है कितना देखो यूँही सरल हो जाना
चलते चलते कितना बढ़ना और क्या है पाना

क्या उचित क्या अनुचित
इस मोह पाश क्यूँ बंधना
क्या मौला क्या पंडित
सब को एक नाम है जपना

फिर क्यूँ बोलो यूँ लड मर कर आप ही खो जाना
चलते चलते कितना बढ़ना और क्या है पाना

हाँ मैं रहती हो कर पुलकित
देख कर रोज़ नया एक सपना
रहूँ क्यूँ हो कर आतंकित
जब न ईश सिवा कुछ अपना

हिम शिखर भी चढ़कर तुने क्या खुद को पहचाना
चलते चलते कितना बढ़ना और क्या है पाना

Sunday, December 11, 2011

हाइकु...

दर्पण टूटा
मुझ से मन रूठा
क्या पहचान

विडम्बना ये
जग झूठा झंझट
राग द्वेश ये

सिंगार धर
सुनती बांसुरिया
राधिका प्यारी

चंदन टीका
सूरज सा दमका
जाग्रत धरा

सुमन नए
टूट के हाए गिरे
कुचले गए

माला पिरोई
प्रिय गठबंधन
ईश्वर संग

मन सुमन
विचार तितली से
सुन्दर क्षण

पुष्प सी खिली
तितली संग नाची
जन्मों की प्यासी

सुन्दर बेल
दीवार पर चढी
अजब खेल

Friday, November 25, 2011

नियति...

नियति को भोगना
नियति है तो
क्यूँ रूठना
जूझना हो ....
केवल चलना
नियति के मार्ग पर
नियति को ओढ़ कर
नहीं थकना
कहीं रुकना
है सृजनता
नव बीज बोया ...उसने
नियति में ही
और नियति के
पार भी

Monday, November 21, 2011

आडम्बर...

जब भी मैं कवयित्री हो जाने का
आडम्बर रच रही थी
औरों पर अपनी कविता का
पाठ मढ़ रही थी
वहीँ भीड़ में कुछ चेहरे
ओझिल बोझिल से
प्रश्न करने को बैठे थे
शिथिल से ......
क्या तुम ही जान पाती हो
क्या लिख लाती हो
क्या कह जाती हो
कुछ भावों को
क्लिष्ट शब्दों में लपेटकर
स्वप्न अपने ही समेटकर
यहाँ परोस जाती हो
तुम ही समझाओ हम को
कैसे कह दें तुम को
कवयित्री
क्या है तुम्हारा अपना
अनुभव या अनुभूति ?
है केवल ...नश्वर ...ये स्वर ... !
और बहुत स्वांग...झोली भर !

Thursday, November 3, 2011

आशाओं की लहर....

मेरे मन मंदिर में प्रियवर
आशाओं की लहर जगी है

हिय मेरा था सरल बना यह
पथिक जीवन के पथ पर
छोड़ चूका था आशा क्या
दर्शन देंगे देव विमल
बनकर नीर सरिता बहता
भाव सागर में मिल जाने को
झेला जिसने व्योम से लेकर
पृथ्वी की दुर्गम तृष्णा को

ये मन हो रहा सूखा तरुवर
प्रभु आस हर पहर जगी है

माया मोह ने घेरा डाला
सत्य असत्य में उलझा थोडा
भागा लेकर हिय को मेरे
स्मृति नाम का चंचल घोडा
लौट न पाया बरसों बीते
टूटा सब्र का भी अभिमान
ले मन वीणा भटका वन वन
नित्य नूतन सुर तान

विलम्ब न कर, अब करुणा कर
तृष्णा कैसी ये अधर जगी है ....

Friday, September 30, 2011

हाइकु..

प्रार्थना कर
कण में बसे ईश
विश्वास कर
-------------------------
नींद से जागा
घबरा गया बच्चा
है स्वप्न टूटा

कोरा कागज़
छिन्न भिन्न आखर
है मन रूठा

कृष्ण न माने
राधिका डर भागी
गागर फूटा
----------------------------------

Thursday, September 8, 2011

करो प्रतीक्षा...!

प्रेरित होगा नूतनतम को
जो है आज पुरातन ,
सृजन करेगा , संशय मन में ,नवचेतन ...
करो प्रतीक्षा , आज उद्विग्न जो,
होगा स्थिर कल वो...
एक पल भाषित कर..
कर देगा ...
सरल सर्वस्व अधम को....!!!

Friday, September 2, 2011

पा ही जाता होगा...

जब भी अपनी सार्थक सृजनता में,
कुछ खोजने लगता होगा,
तो पा ही जाता होगा,
अपनी आत्मा,
वो भी,
ऐसे ही,
जैसे प्रार्थना,
तप में लीन साधना,
कोई साधक करता होगा ,
इश्वर से एक होने की प्रसन्नता में !!!

Thursday, September 1, 2011

  कुछ.... था नया

सर्द हवा    
    लुटती सबा,
और भी कुछ     
   था नया

 भीगी पलके    
  जगी रातें ,
और तो मिलता      
    भी क्या

बेबसी भी   
    दीवानगी भी ,
उस के सिवा      
  सबकुछ मिला

 पूछ्ती है      
  खामोशी भी  ,
 मुझ से उसका        
  ही पता

 लम्हा लम्हा      
  ठहर  गयी,
 मेरा ऐसा     
     हाल हुवा । 

खामोशी...

यह खामोशी भी तो      
    जोडती है मुझे तुमसे          
बहती हवा ,
और कहीं दूर
             बादलों की गड़गड़हट          
 सुखे पत्तों पर कदमों की  
                    सरसराहट...
 दूर किसी मंदिर मे    
                बजती घंटियां ।।।
 और रंगे हिना।।।
 मेरे लफ़ज़ों के अलावा सबकुछ,
 जोडता है मुझे तुम से।।।!

Thursday, August 25, 2011

सुन्दर पल...


सुन्दर पल
मत कर छल
थोड़ा ठहर ठहर कर चल
तुझ में तो है कितना बल
होने दे मेरे स्वप्न सफल
आज ही बस तू न ढल
किसने देखा है फिर कल
सुन्दर पल
मत कर छल....

याद...


है याद सिमटी
बंद कमरों में कहीं,
सर्द घाटी और बर्फीली पहाड़ी ,...
खुशनुमा लम्हों की सौगात सी !
गुज़रा वक़्त ही तो है मेरी पहचान भी!...

Saturday, August 20, 2011

समुन्द्र....

समुन्द्र
अथाह समुन्द्र ,
मुझ को अपने मैं छुपा लेने को आतुर
हाँ ये समुन्द्र मेरा अप्रतिम प्रेमी
अपनी लहरों के जोर से पैरों तले
की मेरे मिट्टी को खिंच कर
मुझको बेजान कर देता...
और दो पल को मैं भी उसके साथ हो लेती
आह!
इतना अनुराग! मेरे लिए!
बस मैं भी सुद बुध खो देती !
यकायक याद आता मुझ को मेरा जीवन
और कुछ चित्र
बस मेरा शरीर मुझ को अपने आप रोकने लगता ,
लहरों से झगड़ता
फिर कहीं से दो हाथ आकर मुझ को थाम लेते
और उन्ही में मैं खुद को भींच कर रो लेती
आह! मेरे प्रियवर !
विरह का विलाप करता समुन्द्र
अपनी लहरों को पटकता
शोर करता
डराता ...और डरता
मुंह को मैं छुपा लेती
और मन में उठती टीस को भी
मूंदी हुई आँखों से प्रिय को प्रार्थना करती
"मेरे मृत शरीर को जब तुम
अग्नि पुर्सो..
मेरी राख भरी हुंडी को सहेज कर
न गंगा में ,न मंदिर,न पहाड़ो पर ,
न रेतो में,
बस इसी समुन्द्र मैं कहीं छोड़ आना
मुझे पता है ये मेरी प्रतीक्षा तब भी करता होगा
इसी प्रीति से मुझे पुकारता होगा

कृष्ण बनो तो...

तुम
अधरों पर धर मुरली
धुन नई छेड़ो
मैं
पुनः सब स्मृतियाँ छोड़
तुम्हारे चरणों में आजाऊं
पुलकित हो आऊं
प्रिय तुम ...
इस युग के कृष्ण बनो तो
मैं राधा बन जाऊं ......!

Wednesday, August 10, 2011

चुप

तुम कितना चुप रहती हो
जब चुप रहती हो क्या सोचती हो
या चुप्पी के लम्हो मे तुम कुछ
सोच भी पाती नहीं हो
या सोच के समन्दर मे खो कर
खुद को खोज ही पाती नहीं हो
और इसलिये शायद कुछ
बोल ही पाती नहीं हो……॥

Wednesday, August 3, 2011

मैं साधक ..




हा
मुझ को भी हो जाना है
साधक विलीन ...
स्वच्छंद ....निश्छल
स्वाधीन !
बंधन में बंधना
क्या हो जाना है
लक्ष्य विहीन
कैसे हो जाता कोई साधक
है स्वप्निल जीवन अर्थहीन ....
जो साधन पथ पर लेता
अपनों से
सुख छीन... !
हा
मैं तो हूँ साधक,
नहीं मुझ में भावना... हीन
कर्त्तव्य मार्ग के रश्मि रथ पर हूँ आसीन .....
मैं साधक विलीन !

Wednesday, July 27, 2011

नई बात होती है ...!

जब कभी रात होती है
कुछ नई बात होती है

अँधेरा भी सुकून देता
जो मुलाक़ात होती है

दरिंदों की नहीं ग़लती
ये उनकी ज़ात होती है

कोई जो होंसला रखले
उसकी कायनात होती है

नहीं है फ़र्क इन में भी
ये शे येही मात होती है

बिछडेंगे ये सोचें क्यूँ
ये भी कोई बात होती है

कभी हँसना कभी आंसू
अजब हयात होती है

सभी से फ़ासला रक्खें
दोस्ती खैरात होती है

खो जाए तो दूंढ़े कौन
गज़ल सौगात होती है



Tuesday, July 26, 2011


समंदर तू मुझे अपनी यही गहराइयाँ देदे,
तेरी मोजों की ये सिलवट यही उचाइयां देदे


बदल जाएगा हर मौसम मगर तू है वही
मुझे अपनी यही आदत यही तन्हाइयां देदे


किसी मंज़र के गुम होने का ग़म नहीं मुझको
पर ये क्या की बदले में मुझे रुस्वाइयां देदे


कभी बेलौस मस्ती में कोई तो शाम निकले
लबों के ज़र्द होने तक, कुछ, नई रुबाइयां देदे

Sunday, July 24, 2011

गया कोई

कर के वादा निभा गया कोई

हाए !मुझको भुला गया कोई


है जो काली ये रात क्या कीजे

जलता शोला बुझा गया कोई


कोई होगा न बुरा उस सा यहाँ

मुझ को मुझ से चुरा गया कोई


मंजिलें ग़ुम सफ़र लम्बा है

नक़्शे-पा ही मिटा गया कोई


उन बारिशों की ख़बर किस से लें

जिन से मुझ को भीगा गया कोई


कितना बैचन आज फिर दिल है

रो के , मुझ को रुला गया कोई


Monday, July 4, 2011

सत्य भी तो निरपेक्ष नहीं,
अटल.... अमर
कभी नहीं
इस को करे परिभाषित कौन ?
इसे स्वीकारे बस एक मौन!

Thursday, May 19, 2011


संवाद भर से क्या

हो जाता है कोई परिचित,

और परिचित होकर ऐसे

हो जाता है परिभाषित....

हाँ मनुष्य की सोच

ही तो है सीमित

ऐसे तो होती गढ़ित केवल..

कल्पना, किंचित.....

Wednesday, April 13, 2011


किसी आवाज़ का मोहताज ना हो जाए तू,

है मुमकिन किसी को याद भी ना आए तू


सफ़र में होके मुसाफिर की तरह ही रहना,

क्या ज़रूरत किसी के दिल में उतर जाए तू


किया है उस से जो वादा तो निभा भी लेना,

दिल की बातों में आकर ना मुकर जाए तू.


बुरा नहीं यूँ बनाना नये रिश्ते लेकिन

अज़ल से हैं जो उन्हे ही निभा ना पाए तू


मरके बन जाना है गर्दिश का इक तारा लेकिन,

जीकर भी तो किसी घर का दिया जलाए तू


बदल रहा है ज़माना ज़रा तू भी तो बदल

क्यूँ बूढ़ी रस्म का हर वक़्त जशन मनाए तू

Monday, April 11, 2011

आस पास हूँ


हाँ तेरे आस पास हूँ,

मैं आज फिर उदास हूँ ,!


छू भी ना पा सकूँ तुझे,

मुझको लगा मैं ख़ास हूँ,!!?


नज़रों में तेरी आ सकूँ,

अब मैं बस ये आस हूँ,!


यूँ तो ना बेख़बर रहो

ख़ामोश एक एहसास हूँ,!


तू खुदा हुवा तो क्या हुवा

तिरे इल्म की मैं प्यास हूँ!!

Wednesday, March 16, 2011

मम्मा हॅपी होली....


वो अपने नन्हे हाथों को गालों पर धर बोली,

आओ ना मम्मा हम तुम मिलकर खेलें होली

मैं घबराई फिर एक उसको डाँट लगाई

घर गंदा होगा दाग ना हटेंगे तुम तो हो भोली,

कैसी होली

मेरी थोड़ी बात समझ कर फिर वो बोली,

मुस्काई,रंगो की अपनी उठा के पोटली,

खींच के मुझको दरवाज़े पर ले आई

चलो मम्मा गार्डेन मैं चलकर खेलें होली

ऐसी होली

मेरा मन बहका मैं साथ में उसके होली

जैसे ही मैने दरवाज़े की चिटकनी खोली

नीचे बोर्ड पर लगे नोट की याद आई

हज़ार रुपए का ज़ुर्माना जो गार्डेन में खेली होली

कैसी होली

बस उतनी सी देर में वो जी भर कर रोली

अब कैसे खेलेंगे मम्मा हम तुम होली

बॉल मान को कैसे मैने ढेस लगाई

मैने अपनी बातों मैं थोड़ी मिशरी घोली

हम तुम दादी के घर खेलेंगे अगली होली

खूब करेंगे मनमानी ,मस्ती,मैं बोली

उसके प्यारे मुख पर मुस्कान जग आई

चढ़ क्र मेरी गोद मैं बोली मम्मा हॅपी होली......

Wednesday, February 2, 2011

रुक जाओ


सुनो, रुक जाओ ना...

क्यूँ अपने हाथों से,

करते तार तार उसकी गरिमा

जिसने पाला,

महीनों अपने कोख मे,

सींचा अपने रक़्त से

तुम पर अपने स्वप्न बुने

तुमने ,

उसे शरीर मात्र बना,

मार्ग पर फेंक दिया

छीन लिया सर्वस्व उसका,

कर नग्न,

भेद शरीर ,आत्मा !!!!

और तुम ...छोड़ दो विलाप..

उठ खड़ी हो जाओ

उखाड़ फेंको विचार ...

वो जो न दे सम्मान....!

नर या नारी से पहले

हो मनुष्य

अंश ईश्वर का...उसकी कृति ,

क्यूँ भेदभाव इतना ...!?


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