Monday, September 3, 2012

माँ तुझको क्यूँ लगता है

माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ

पूरा दिन बैठ सोफ़े पर
लेपटोप को तकती
दूरभाष पर हंसी ठिठोली
हूँ कितना मैं करती
इस टीवी के स्वप्न लोक
में उलझी हूँ
माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ

छोड़ दिया है पैदल चलना
पहिये चार की गाडी है
थोड़ा सा जो श्रम कर जाऊं
सरपट दौड़ती नाड़ी है
जीवन को मैं सतत मशीनी
समझी हूँ
माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ

बारिश धूप सर्दी और गर्मी
कुछ भी सहन नहीं होता
हीटर एसी उपलब्धि है
या बीमारी को न्योता
बंद खिड़की से सावन
तकती रहती हूँ
माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ


हाँ चाँद को छू आये हम
यह अपनी उपलब्धि है
कितनी जाने बचा सकें
जब विपदा कोई पड़ती है
लेकिन क्या मैं प्रगति का
अर्थ ही ना - समझी हूँ
माँ तुझको क्यूँ लगता है
मैं सुलझी हूँ

Friday, August 31, 2012

पारस्परिकता

केवल समर्थन नहीं
अनुशासन भी
पारस्परिकता का नियम ...
वैसे ही जैसे युद्ध भूमि में
कृष्ण ने सारथी बन
...
अर्जुन के अनुशासन को
दिशा दे, लक्ष्य को स्थापित किया
और तिमिर अन्धकार जला
एक ज्योति पुंज साकार किया

Thursday, August 30, 2012

स्वर

तुम स्वर हो जाना
और मैं ....
मैं  तुम्हारे स्वर का
अभिमत... किन्तु इस होने
न होने के प्रक्रम में
इतना भर सचेत रहना ...
कहीं स्वर से सत्य विलुप्त  न हो जाए
कि अपनी गूँज केवल एक
शरणार्थी बन ,लक्ष्यरहित, न विस्मित हो
 कहीं ...भटक जाए.....!

Wednesday, August 29, 2012

मधुरिम गीत

Sunday, August 26, 2012

तुम सा बोध ....

क्यूँ नहीं तुम सा
बोध मुझ में
और मुझ सा सामर्थ्य
तुम में
क्या ' तुम ' और ' मैं '
एक नहीं ...
जीवन नेपथ्य में ?

Tuesday, July 31, 2012

रास्ते


क्या कभी ये रास्ते
फिर जा सकेंगे ...
उन ढलानों की तरफ
कि जहाँ पर छोड़ आई
मैं
कई क़िस्से
अधूरे ...

Photo: क्या कभी ये रास्ते 
फिर जा सकेंगे ...
उन ढलानों की तरफ 
कि जहाँ पर छोड़ आई 
मैं 
कई क़िस्से
अधूरे ...

कहाँ तक

यहाँ से वहां तक
कहाँ से कहाँ तक
तू हुआ ,ऐ खुदा
ये बता तो ज़रा
इतनी ऊंचाइयां
या वो गहराइयां
... या खला जो नज़र आ रही
दरमियाँ
तू छुपा है भला क्यूँ
सदा इस तरह
हर तरफ हर जगह ...

गंतव्य

गंतव्य एक ही तो
किंतु
कर्तव्य कहाँ एक से
हो रही स्पर्धा ये फिर भी
तो पृथक फल के लिए
न हो सकेगा कभी,
किंचित ,
एक जैसा ही समर्पण
जब नहीं प्रतिबिम्ब एक से
जबकि एक ही तो है दर्पण

Sunday, July 29, 2012

सार्थक ....!



हाँ!
यह भी तो सत्य है,
लिखना पढना ,कुछ भी तो करना नहीं होता...
सब ने कहा,
"समय का विनाश करती हो,
जीवन बिना लक्ष्य के
कैसे निर्वाह करती हो....?"
परन्तु मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ भी क्यूँ
क्यूँ अपने सरल,
संवेदनशील मन पर
लेकर बोझ चलूँ !
हाँ , है मुझे आनंद देता ,
बस ,बैठना....,
चहुँ ओर मंडराते
दृश्यों , स्मृतियों,
विचारों को
सुन्दर गढ़िले शब्दों में
संजोना केवल ...
लगता है सुखमई
..... और सार्थक भी...!!!

Thursday, July 26, 2012

बरखा रानी तुम रूठी हो क्यूँ

बरखा रानी तुम रूठी हो क्यूँ

बादल की घनघोर घटाएँ
जब आई हैं आशा बन कर
निर्विकार कुछ निर्विरोध ही
बिखरो न तुम भी तो मुझ पर
क्या ठानी यह बुझी सी हो क्यूँ
बरखा रानी तुम रूठी हो क्यूँ

गीत सुनाओ न तुम भी तो
घर की मेरे छत पर आकर
टप टप टिप टिप वाद बजाओ
छम छपाक छम राग बनाकर
मनमानी तुम करती हो क्यूँ
बरखा रानी यूं रूठी हो क्यूँ

सूखे तरुवर मिट्टी प्यासी
तृप्त कहाँ है अंतस भी तो
चातक सी वो रिक्त नयन बन
ढूंढ रही हूँ केवल तुम को
बंदनी बन रहती हो क्यूँ
बरखा रानी तुम रूठी हो क्यूँ

Tuesday, July 17, 2012

भ्रमित है

भ्रमित है...
असीमता के ओर छोर से
संघर्षरत ...
विलोम पटल पर,
विकट छंद की बाट जोहता
अलसाता शब्दकोश मेरा....
ऐसे में फिर
हो पाए...
कैसे कविता...?

Saturday, July 7, 2012

चेष्टा

अंतस की विस्तृत
उर्जाओं को
एकत्रित करना न सही ....
ब्रह्माण्ड के
संगठित कणों का
विघटन ही क्यूँ नहीं....
कुछ तो कर ही रहा है मनुष्य
उसे ढूँढने की चेष्टा में .......

Friday, June 29, 2012

मेरी कविता..... मेरी हो कर

मैं भी
नव कविता कहने को थी
शब्द भी थे मेरे पास ....
जाग्रत ...परिपक्कव ... उजास
और सोच
हाँ थी भी
और नहीं भी
वह दृष्टि .... अन्याय को पहचान ले जो
और सत्य ही को जान ले वो
आस पास
देश विदेश में घटित
विवाद वाद
कर रहा जो शर्मसार
जातियों का भेदभाव
और भी न जाने कितना
व्यवहारिक अनुभव बखान था
मगर
इनसे बहुत ऊँचे.. कहीं थे
स्वप्न मेरे और मेरे
सरल आभास
कितनी भी कृत्रिम सही
स्वार्थी, निजी रही
बिना शुब्ध हो
संयमिता को नियम बना
मैं मुस्काई
इनमे खो कर ....
रही सदा ही...
मेरी कविता..... मेरी हो कर !!!
 

Wednesday, June 27, 2012

जाप अधूरा

शब्दों की है भीड़
मगर
क्या शब्दों का है चयन ...
सरल ..... ?
जगते -सोते
जीते -मरते
कविता बुनते आद्र नयन...
नहीं कटे
पलछिन
ये दिन
... है आन पड़ी उलझन....
हर जाप अधूरा.. छंद बिना....
और
प्रभु बिना ...जीवन !....

Tuesday, May 22, 2012

गाए मन

मौन मुखर कर
गाए मन

प्रणय राग पर
बंधन बांधे
सृजन सुरीले
दर्शन मांगे
स्वर अंजन धर
जाए मन
मौन मुखर कर
गाए मन

तपती धरती
प्यासी मरती
बिलख बिलख
मेघा को तरसी
स्नेह सरित
बरसाए मन
मौन मुखर कर
गाये मन

ज्ञान ध्यान सम
अलख जगाए
सरल स्वप्न
नूतन बन जाए
नव आशा भर
जाये मन
मौन मुखर कर
गाए मन

Saturday, May 12, 2012

जीना है

जीना है
इन्द्रधनुष के पार
व्यापक
दिखता जो
दिव्य जीवन
वैसे ही
और
धरा के साथ बंधकर
ओस की बूँद
जैसे भी
परन्तु कहाँ सुनिश्चित  रहा
अब तक
नियति का सरस खेला
कौन बीज
कैसे बोया जाएगा
बढ़ रहेगा ओट किसकी
और कैसे कब मिलेगा
धूप छाँव का संरक्षण
या असमय
हो जाए भक्षण
कौन जाने ....
मार्ग तो है ही कठिन पर
जी रहा फिर भी कण कण
हो रहा प्रस्फुटित हर क्षण
पथिक बन जीने को आतुर
नवांकुर ....

Monday, April 30, 2012

एक सफ़र ऐसा भी हो

एक सफ़र ऐसा भी हो

न मंजिलें हों

रास्ते ही रास्ते हों
...
पेड़ पत्ती फूल पौधे

आसमानी रंग सारे

कैद हों

विस्तार से

स्मृतियों की

स्लेट पर

गाँव गाँव

देश घर -

विदेश से परे कहीं ....

हों रास्ते ही रास्ते

न मंजिलों के वास्ते

हों दौड़ते भागते ...

हो नया सफ़र हर घड़ी

हर गजर....हो सफ़र ....!
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Sunday, April 15, 2012

ज्योति बिम्ब


हे
अमिट अविकल,
ज्योति बिम्ब
तुम प्रणिता ,...
पावन प्रार्थना
अज्ञान कण का हरण कर
अनंत तम से तारना.....

Friday, April 13, 2012

सरल साश्वत

रहा
सरल साश्वत
प्रेम तुम्हारा
तब भी ,जब
पथिक जीवन
विकल हो
बदला कण कण ....
हर क्षण
रहा मग्न
खोजने में नींव ही को ...!

Thursday, April 12, 2012

"मेघ न बरसा रोया मौन"

मिटटी तो उपजाऊ थी...
पर लुट कर उस में खोया कौन

भूख निगलता
आप ही गलता
सरल भाव सा
सड़े घाव सा
उसे कोई समझाओ जी
मेघ न बरसा रोया मौन
मिटटी तो उपजाऊ थी
पर लुट कर उस में खोया कौन

मूर्छित तन मन
किंचित कण कण
बीज बो रहा
भाग्य सो रहा
कांटो से उसे छुड़ाओ भी
खेत बंजर अमीर हैं लॉन
मिटटी तो उपजाऊ थी
पर लुट कर उस में खोया कौन

Wednesday, April 4, 2012

सरल संवाद

मैंने जब तुम से
सरल संवाद जोड़ा था
कब कहा था
प्राण फूंको
मेरे इस आसक्त...
से संकल्प में .....
अप्राप्य था जो
उसे भी प्राप्त करने की
नवोदित प्रेरणा
क्यूँकर जगाई .... ?

Tuesday, April 3, 2012

ज्ञात है ....

वह सरोवर में जो मयंक अभिज्ञात है
कहीं दूर थोडा
या वह वृक्ष पर स्वर्ण सा पत्ता
जो टूटा ...जुड़ा थोडा
क्या उसी में तुम कहीं छुप कर बैठे हो
इस वायुमंडल में
जहाँ बन जाते हैं स्वप्न के अनेक महल
या फिर उस सुगंध में
जो मंदिर की प्रज्ज्वलित बत्तियों से
मुझ तक पहुंचती है
तुम हो ...यह ज्ञात है
निकट ही .....अन्तरंग कहीं
छुपते छुपाते हो
स्वतः क्यूँ नहीं दृश्य हो जाते हो
या चाहिए तुम को अनगिनत वर्षों का मौन
या असाध्य बने रहने की तुम्हारी प्रवृत्ति
तुम से छूटती ही नहीं ?

Friday, March 30, 2012

हर क्षण .....जीवंत

विनम्र रहते हैं
विस्मित हो जब टूट कर
औन्धे मुंह ... धंसे रहते हैं
गर्म मिटटी में
तब भी
विनम्र रहते हैं स्वप्न .....
पुनः पूर्ण होने की अभिलाषा से॥
रहते हैं हर क्षण .....जीवंत

Monday, March 26, 2012

सूक्ष्म


कितना सूक्ष्म है
यह भेद
शाश्वत और निरंतर ...
हो जाने में
जटिल भी तो कितना
हर क्षण
जब हो
वायु जल आकाश अग्नि
और पृथ्वी से
परे हो जाने को व्याकुल
यह चित्त.......!!

Saturday, February 4, 2012

दोहे

मौसम आये जाए पर ,सब सहना चुपचाप

नारी जीवन वृक्ष सा ,व्यर्थ न कर संताप


कितने आंसू पी रहा , एक बेटी का बाप

मान रहा वो आज भी ,लड़की को अभिशाप


नहीं सरल रहना वहां ,हो निश्छल निष्पाप

सब लेकर जीते जहाँ ,अधम सोच की छाप


साधन पथ पर बढ़ चला ,फिर भी मन घबराए

जोत जले जो भक्ति की ,श्याम भी मिल जाए!


मैला इसको तू करे, धरा न कूड़ा दान

आश्रय सबको दे रही ,रखले थोडा मान

Tuesday, January 31, 2012

अंतिम प्रयास

भरता उल्लास,

तुम्हारा नाद ,

भीतर भीतर ,

नव उन्माद ,

जैसे आलौकिक

नव निर्माण,

तुम अरूप ,

किन्तु उजास ,

सर्वभूत ,

शुभ सुवास ,

मोक्ष की ,

प्राप्ति का ...

तुम मेरा

अंतिम प्रयास

ओ पूजनीय ,

परम आत्मा ...

तुम से मिलन....

अंतिम प्रयास

सवाल जवाब

आज कल ..अक्सर
कुछ सवाल जवाब
मेरे सिरहाने सोये रहते हैं
इस उम्मीद से कि मैं
इन्हें अपने दिल में कोई जगह दूँ ....
मेरे सपनों को नोचते
खरोचते हैं...
पर मैं इन्हें दुत्कार देती हूँ
सदा
क्या खबर
इन सवालों और जवाबों में
खो जाए मेरा वजूद ही....
और मैं रह जाऊं फिर ...अकेली!

Saturday, January 21, 2012

किरण

खिलखिलाओ मन
सृजन का बीज बोया
आज मैनें

हो रही पुलकित किरण ये
मुझ से मिलने आ रही
बादलों की ओट चंचल
प्रिय सी शरमा रही
गुनगुनाओ मन
जगाया भाग्य सोया
आज मैनें

खेत में बिखरी हुई जो
फसल पर इठ्ला रही
सिन्दूरी यह लालीमा
ठिठुरी धरा को भा रही
बहलजाओ मन
है पाया था जो खोया
आज मैनें

नींद से जागी अभी
नव कोपलें अलसा रही
ऋणी हो कोयल कहीं
नवगीत कोइ गा रही
ठहर जाओ मन
धरा पर सुख संजोया
आज मैनें..........

Friday, January 6, 2012

ऊर्जा का स्रोत तुम .....

ऊर्जा का स्रोत तुम
दर्प का हूँ भार मैं

विशाल तुम ह्रदय लिए
सूर्य भांति तप रहे
दूसरों के ही लिए
निःस्वार्थ जीवन जप रहे
क्षमा की एक जोत तुम
त्रुटियों का संसार मैं
ऊर्जा का स्रोत तुम ....

अश्रुओं को सोक लूँ
उम्र ढलती रोक लूँ
बिन तुम्हारे ओ पिता
कैसे जीवन सोच लूँ
सत्य ओत प्रोत तुम
झूठा अहंकार मैं
ऊर्जा का स्रोत तुम...

सूर्य जैसे है सदा
धूप छाँव से बंधा
स्वर्ण सी आभा लिए
तुम दमकना सर्वदा
ज्ञान का उद्योत तुम
विराट अंधकार मैं
ऊर्जा का स्रोत तुम ....
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