Sunday, December 15, 2013

तुम्हारी भूल

भूल तो तुम्हारी है 
क्यूँ दे दी तुमने 
अग्नि परीक्षा 
क्यूँ हाथ जोड़े
अश्रु बहाए...
क्यूँ नहीं भस्म कर डाला
तुम पर लांछन लगाते 
असुरों को ...
हाथों हाथ 

तुम्हारे सतयुग से तो कलयुग
यह मेरा भला है !!
जहाँ मुझको यह तो पता है
'राम' से हटकर भी
मेरा अस्तित्व है
नहीं लादती मैं ख़ुद पर
'राम' की मर्यादा का बोझ
नहीं आँक सकता
हर कोई मुझे
हर बार
बेबात

पर फिर भी
तुम्हारी उस एक भूल
की सज़ा
भुगत रहीं हैं आज
हज़ारों 'निर्भया'.....
कौन कब कैसे प्रताड़ित हो
किसे पता
वैसे भी
हर कोई मेरे 'राम' जैसा
'राम' भी तो नहीं होता ......!!

Thursday, June 20, 2013

विषैली

विषैली हो गईं हैं
ज़बाने
सोच
यहाँ तक की
स्मृतियाँ भी
मशीनों पर लगी जंग सी
कडवाहट ही फैली है
अब हर ओर
कितना शोर
और
जो संबंधों में तकनीक
समाई है
सो विलुप्त है अब बचा कूचा
सामंजस्य का बोध
लो अब ढोना
मानवता की मृत
भावनाओं का बोझ
अंत तक  .....

Wednesday, June 19, 2013

कुछ यूँ

कुछ यूँ हिलती डुलती
ज़मीनों का
सच
प्रत्यक्ष होने लगा है
और
... नदियों में उफान का
रेतीले बवंडरों का
या कि
समुद्री तूफानों का .....
हाँ सच तो केवल एक है
युगों से युगों का सफ़र
निरंतर अवश्य ....
परन्तु
अनंत तो नहीं .....

Sunday, May 19, 2013

"मैं"

एक मैं
और मेरा अहम्
उस पर
अहम् का अस्तित्व भी
जीवन भर
संघर्षरत सभी
कोई भी जीते
निश्चित है ,
पराजय मेरी
क्योंकि मन पराधीन ...
चेतन होकर भी !?

तू...

हाँ कि बगिया सा महकता है
तेरी ममता का आँचल यूँ
तेरी गोद ही में सर रख लूँ
मेरी तो बस ये जन्नत है

मेरे सपने तेरा मक़सद
तू कब ख़ुद के लिए जीती
बिना माँगे जो हो पूरी
तू एक प्यारी सी मन्नत है

मुझे डर है....

खो जाने का डर नहीं
मुझे डर है
सोच न पाने का !
क्या होगा तब
जब दृष्टि की सीमाओं को
लाँघ नहीं पाएगा मन
जब अल्साए सूरज की
किरणों तक को छू न पाएगा
या कि बिन माँ के बच्चों संग
ख़ुद भी बिलख न पाएगा !
... और वो
पंछी की उन्मुक्त उड़ान
या न चाह कर भी
कभी न रुक पाए उस
शापित जीवन का एहसास
...नहीं कर पाया तो ?
होने न होने में मेरे
अंतर क्या
रह जाएगा! ?

Wednesday, February 20, 2013

विधाता

हे विधाता
संदेह है
मुझको
क्या परस्पर किसी विरोधाभास
में
मनुष्य रचा तुमने
संवेदनाओं की वेदी चढ़ा इसे
अनगिनत भूमिकाओं में बाँध
तुम हुए विलुप्त यूँ कि
हाथ भी नहीं आते अब
और एक दिन इसी मृत्यु  जीवन
के संघर्ष में
भूल जाएंगे तुम्हे
और तुम्हारा होना न होना
हमारे हाथ होगा
फिर क्या रहोगे तुम विधाता
इसी तरह दीप्त ...?

Tuesday, February 12, 2013

स्वार्थ

अपने अपने अस्तित्व की लड़ाई में
दिशाहीन ,
खोखला अंतस ....
एक  स्वार्थ की बली
चढ़ गया
बच गया फिर भी
जीवन भर का सारांश
अल्पविराम...
एक निजी !!

Thursday, February 7, 2013

कर्मठ 'कविता'....

सभी कर्मयोगी थे
मैं न जाने कैसे
शिथिल सी बन
इधर उधर गिरती पड़ती बैठी बैठी
अनगिनत स्वप्न
...बुन चली
और मार्ग मार्ग पर कठिनाई का
एक चिट्ठा तक लिख डाला
और नाम दे दिया
मेरी 'कविता '
क्या कविता का सृजन
मात्र इतना भर था ....?
या फिर सृष्टि की उत्पत्ति जितना
ही
क्लिष्ट ?
या वृक्ष की छाया जैसा
नदिया की कल कल
बगिया में कुमुद कुमुद लहराती
मधुर मनचली सुगन्धित बेला ..ज्यों
..सरल ?
जैसा भी था
मेरी अनुभूति का सुखद अनुभव
अंजुरी भर मेरे स्वप्न .....
फिर भी कर्मठ थी
.... 'कविता'....

Tuesday, February 5, 2013

समाधान

क्यूँ समाधान खोजने निकल पडता है
हर बार ..जीवन ,
क्या मार्ग पर बढ़ते रहना ही नहीं
केवल ध्येय,
क्या लक्ष्य
नहीं कर देता सीमित
मन विराट...
ब्रह्माण्ड सी सोच का
कर रहा जीवन चक्र, ध्येय ,लक्ष्य ...,
....आदर्श विलुप्त ?
... और फिर भी लक्ष्यहीन
भोगता रह जाता
समाधान की खोज भर में
.... आजीवन कारावास ...यह मन

Monday, January 28, 2013

व्यापकता

व्यापकता के झोल झाल में
कविता की तो नींव हिल गई
उलझी जंगल के झाड़ फूस में
पेड़ों में अक्सर लुप्त हुई
ऊँचे टीले आसमान की
ख़ाक छानती
शुब्ध हुई
बिरहन बन सब रंग
खोती
बंधन मुक्त नहीं हो
पाई
सागर के मंथन में भी
न सीख सकी कुछ न
दिख पाई
एक व्यापक होनहार कविता
न हो पाई
न हो पाई !


Friday, January 25, 2013

शून्यता में खोजता



हूँ शून्यता में खोजता मैं,
एक नई ही प्रेरणा..
मैं प्रश्‍न हूँ ,विचार हूँ,
या स्मृति की वेदना...



हाँ !मैं पंख हूँ और मुझे,
विलोम कण है भेदना..
या त्रुटि शूल हूँ मैं,
स्वयं ही को छेदता






सुवास हूँ मैं रंग हूँ,
विहग की हूँ चेतना,
ग्लानि नहीं,हूँ प्रयास,हूँ
भंवर मधु से खेलता...



विश्वास हूँ मैं राम हूँ,
भक्त की हूँ प्रार्थना..
मृत्यु नहीं, जीवन नहीं,हूँ
गृहस्थ मैं सन्यास सा....!


Monday, January 21, 2013

सत्ता

"क्या दीख पड़ता है कहो
सत्ता के रेशे रेशे से ...
टपकता खून
और नयन भर आंसूं ?
छोटे छोटे सपनो की
लाशों पर पड़ी सूखी
चन्दन की लकडियाँ ?
या रुढ़िवादियों की
जनि कुरीतियों पर
निर्दोष चीखें ?
हाँ ! मगर सत्ता तो विराम ले बैठी है
वन्हीं की वन्हीं
यही निर्लज्जता की पराकाष्ठा "
तो क्या ले लें हम अपने
हाथों में स्वयं, सत्ता ?
"कैसे
निजी व्यवस्थाओं का
सामाजिक अवस्थाओं का
क्या होगा ..अभी नहीं ....
"मैं" सब समझती  हूँ
पर भयभीत हूँ 'मैं'
जो जैसा है वैसा सही"

समानताएं

मैं केवल समानताएं
ढूंढती थी
तुम में और मुझ में
क्या पाया मैंने
अबोध से कुछ आचरण
और सहमे सहमे कुछ स्वप्न
उधेडबुन में इसकी कौन किसका रक्षक
लेकिन फिर भी था कुछ
निरंतर होता घटित
जब यह बंधन मतवाला
करता निस्वार्थ अभिनन्दन
एक दुसरे की सत्ता का
निर्भीक समर्थन
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