Monday, January 21, 2013

सत्ता

"क्या दीख पड़ता है कहो
सत्ता के रेशे रेशे से ...
टपकता खून
और नयन भर आंसूं ?
छोटे छोटे सपनो की
लाशों पर पड़ी सूखी
चन्दन की लकडियाँ ?
या रुढ़िवादियों की
जनि कुरीतियों पर
निर्दोष चीखें ?
हाँ ! मगर सत्ता तो विराम ले बैठी है
वन्हीं की वन्हीं
यही निर्लज्जता की पराकाष्ठा "
तो क्या ले लें हम अपने
हाथों में स्वयं, सत्ता ?
"कैसे
निजी व्यवस्थाओं का
सामाजिक अवस्थाओं का
क्या होगा ..अभी नहीं ....
"मैं" सब समझती  हूँ
पर भयभीत हूँ 'मैं'
जो जैसा है वैसा सही"

1 comment:

Anonymous said...

गहन मनोभावों की प्रभावी प्रस्तुति

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