Monday, January 28, 2013

व्यापकता

व्यापकता के झोल झाल में
कविता की तो नींव हिल गई
उलझी जंगल के झाड़ फूस में
पेड़ों में अक्सर लुप्त हुई
ऊँचे टीले आसमान की
ख़ाक छानती
शुब्ध हुई
बिरहन बन सब रंग
खोती
बंधन मुक्त नहीं हो
पाई
सागर के मंथन में भी
न सीख सकी कुछ न
दिख पाई
एक व्यापक होनहार कविता
न हो पाई
न हो पाई !


Friday, January 25, 2013

शून्यता में खोजता



हूँ शून्यता में खोजता मैं,
एक नई ही प्रेरणा..
मैं प्रश्‍न हूँ ,विचार हूँ,
या स्मृति की वेदना...



हाँ !मैं पंख हूँ और मुझे,
विलोम कण है भेदना..
या त्रुटि शूल हूँ मैं,
स्वयं ही को छेदता






सुवास हूँ मैं रंग हूँ,
विहग की हूँ चेतना,
ग्लानि नहीं,हूँ प्रयास,हूँ
भंवर मधु से खेलता...



विश्वास हूँ मैं राम हूँ,
भक्त की हूँ प्रार्थना..
मृत्यु नहीं, जीवन नहीं,हूँ
गृहस्थ मैं सन्यास सा....!


Monday, January 21, 2013

सत्ता

"क्या दीख पड़ता है कहो
सत्ता के रेशे रेशे से ...
टपकता खून
और नयन भर आंसूं ?
छोटे छोटे सपनो की
लाशों पर पड़ी सूखी
चन्दन की लकडियाँ ?
या रुढ़िवादियों की
जनि कुरीतियों पर
निर्दोष चीखें ?
हाँ ! मगर सत्ता तो विराम ले बैठी है
वन्हीं की वन्हीं
यही निर्लज्जता की पराकाष्ठा "
तो क्या ले लें हम अपने
हाथों में स्वयं, सत्ता ?
"कैसे
निजी व्यवस्थाओं का
सामाजिक अवस्थाओं का
क्या होगा ..अभी नहीं ....
"मैं" सब समझती  हूँ
पर भयभीत हूँ 'मैं'
जो जैसा है वैसा सही"

समानताएं

मैं केवल समानताएं
ढूंढती थी
तुम में और मुझ में
क्या पाया मैंने
अबोध से कुछ आचरण
और सहमे सहमे कुछ स्वप्न
उधेडबुन में इसकी कौन किसका रक्षक
लेकिन फिर भी था कुछ
निरंतर होता घटित
जब यह बंधन मतवाला
करता निस्वार्थ अभिनन्दन
एक दुसरे की सत्ता का
निर्भीक समर्थन
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