Monday, January 28, 2013

व्यापकता

व्यापकता के झोल झाल में
कविता की तो नींव हिल गई
उलझी जंगल के झाड़ फूस में
पेड़ों में अक्सर लुप्त हुई
ऊँचे टीले आसमान की
ख़ाक छानती
शुब्ध हुई
बिरहन बन सब रंग
खोती
बंधन मुक्त नहीं हो
पाई
सागर के मंथन में भी
न सीख सकी कुछ न
दिख पाई
एक व्यापक होनहार कविता
न हो पाई
न हो पाई !


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