Sunday, May 19, 2013

"मैं"

एक मैं
और मेरा अहम्
उस पर
अहम् का अस्तित्व भी
जीवन भर
संघर्षरत सभी
कोई भी जीते
निश्चित है ,
पराजय मेरी
क्योंकि मन पराधीन ...
चेतन होकर भी !?

तू...

हाँ कि बगिया सा महकता है
तेरी ममता का आँचल यूँ
तेरी गोद ही में सर रख लूँ
मेरी तो बस ये जन्नत है

मेरे सपने तेरा मक़सद
तू कब ख़ुद के लिए जीती
बिना माँगे जो हो पूरी
तू एक प्यारी सी मन्नत है

मुझे डर है....

खो जाने का डर नहीं
मुझे डर है
सोच न पाने का !
क्या होगा तब
जब दृष्टि की सीमाओं को
लाँघ नहीं पाएगा मन
जब अल्साए सूरज की
किरणों तक को छू न पाएगा
या कि बिन माँ के बच्चों संग
ख़ुद भी बिलख न पाएगा !
... और वो
पंछी की उन्मुक्त उड़ान
या न चाह कर भी
कभी न रुक पाए उस
शापित जीवन का एहसास
...नहीं कर पाया तो ?
होने न होने में मेरे
अंतर क्या
रह जाएगा! ?
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