Thursday, February 24, 2022

धूप देखी उसने

 रंग भूरा था उसकी आँखों का

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बाल उलझे काले होंगे शायद 

(ये मिट्टी है ना  ..उड़ती है तब

ये अकसर रंग बदल देती है)

काग़ज़ की पुडिया में मीठी गोलियाँ 

बाँध कर रखती है .. बस्ते में छुपा कर 

पता नहीं कौन से मीठे तालाब पोखर बावड़ियों 

से गुज़र कर आती है बावरी

होंठों पर से जो मुस्कान छिटकती है 

रत्ती भर को संदेह नहीं होता कि पेट भरने को 

पूरा नहीं मिला कल रात

ले आती है फिर भी तो अमराई की ठंडी छांव 

किसी संकरे रस्ते से लौट आती है जब

कौन दिशा से उड़ कर आती हैं 

उसकी फ़्रॉक की रंगीन तितलियाँ 

खिलखिल हँसती है जब सुनती है अपना नाम

माँजे हुए बर्तनों की खनक ले आती है क्या साथ

झगड़ती नहीं रूठती नहीं साथी भी तो नहीं ढूँढती

सपनों की बेड़ियों में इच्छाओं को नहीं बांधती ... 

सुनो भूरी आँखों वाली लड़की...

मिट्टी सनी हथेलियों से मेरे गालों को थोडा छू दोगी क्या

मेरे फीके रंग को अपना रंग दोगी क्या थोडा सा

लाल सुनहरा रेशम जैसा नहीं 

मिट्टी जैसा रंग ..अपना सा!!

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….वो जरा सा हवा के साथ उठी हो जैसे

हाथ बढ़ाकर एक मुठ्ठी बादल निचोड़ लिया हो

कुछ ठंडी शरारत भरी बूँदों ने उसकी पलकों पर 

सुबह लिखी हो नई

अभी अभी उग आई जैसे.. सुनहरी घरती पर 

 ओस की परतें बिछी और

नंगे पैरों से छुआ दी उसने मीठी घास

नन्हीं किलकारियों सी बज रही 

उसके पैरों पर बूँदों की पाजेब 

उस पर नाचती है तो 

दिशाएं घूमती हैं

 बेफ़िक्र होकर ओढ़ती है धूप तो 

रंग महल बन जाती है दुनिया सारी...

कहो ना  भूरी आँखों वाली लड़की

रेत हो पानी हो हवा हो कि धूप हो तुम....

कि सर्द दिन का अट्टहास भरा लम्हा...

तुम ...बस तुम हो जाना चाहता है!!

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….धूप देखी उसने 

कहा रोशनी 

जग भर में उजली उजली घूमी

तुम्हें संदर्भ नहीं दिखा

तुमने कह दिया दंभ

उसने अचरज से आंखें मन की ओर घुमाई

पाया संतोष

धूमिल हुए तुम्हारे उद्घोष ….

उसने फिर ठहर कर 

सेकी जी भर धूप….

Tuesday, March 2, 2021

भोर

 कुछ स्वाँस भर शब्द 

बचे रहे हैं मेरे भीतर

नए भोर की नई नवेली 

धड़कन बन कर 

शोर मचाते हूक जगाते क़र्ज़ उठाते

मिट्टी ख़ुशबू प्राण 

समाहित 

हर क्षण भर को जीते जाते

लो पृथ्वी के सब गुण दोष 

कुछ शब्दों में कैसा रोष

Wednesday, October 21, 2020

बैसाखियाँ


 उजला सोचती है 

वो सोच ही सकती है केवल

ऐसा नहीं है...

मगर सोच ही पा रही है 

ऐसा है....

तो उजला सोचती है

सही सलामत पैरों को 

नहीं चाहिए आसरा

नहीं चाहिए दान नहीं चाहिए प्राण

नहीं चाहिए मज़बूत हाथों को कंधे 

दुनिया भर के 

सीधी रीढ़ की हड्डी को भी 

नहीं चाहिए 

बेगरज़ सहारे 

फिर भी क्यूँ ....

 क्यूँ अतिरिक्त खोजती 

दो आंखें पल पल समर्थन 

क्यूँ  बांधना चाहता मन 

अनगिनत बंधन 

और वही...

अदृश्य बैसाखियाँ !!






Saturday, September 22, 2018

एक दौड़

अंतत: एक दौड़ ही थी
आगे बढ़ना था
सारे घाव भरने थे
मगर उम्मीद किसी शाख पर टँगी
हरी पत्ती तो नहीं
कि सूख कर गिरी और उभर आई नई
यह तो स्वार्थी जिज्ञासा से भरी महज़ 
एक सोच भर है
जिसमें अगले पल को पकड़ते
इस पल का जीवन हाथ से छूटा जाता है
स्मृतियों की गठरी का बोझ भी तो हल्का नहीं होता
जो एक बार दब के गिरे वो फिर कभी
सहज भर श्वास कहाँ ले पाए

चलता जाता है समय मौसमों के साथ बदलता हुआ
फिर उम्मीद की आँख फड़कने लगती है
और उभर आता है तनाव की आँधियों में सवेरा
बस चाहिए संयम परस्पर ,मन की परिधि में
मौन गहनतम
फिर खोज ही लेगें
नई दौड़ के लिए नई पगडंडियाँ ......

ये संसार

ये संसार , उस कविता की अनमनी प्रवृति है
जिसे तुमने रचा पूर्णत: भेद भाव से
छोटी छोटी फुलझड़ियों सी हँसी हंस कर तुम
बुझ जाते हो ना रात कालिख सी पोतते हुए
इस चिरायु ब्रह्माण्ड में कहीं खो जाते हो
पूछना चाहती हूँ तुमसे
व्यक्तित्व पर अलंकारिक छद्म 
परतों की संभावनाएँ
तुम ने ही रची या
स्वच्छंद रहा मनुष्य ऐसा कर पाने में
कौन सा रस मिलता रहा है तुम्हें
विनाशकारी बिम्ब, विष भरे रोज़ गढ़ते हुए
उजाड़ बस्तियों के मसले फूलों के
टूटी उम्मीदों लटकती लाशों के ....
जैसे तुम्हारी अपूर्ण कविता का ये
आख़िरी खंड रचा जा रहा हो
सभ्यताओं का विनाश प्रतिबिम्बित है
समय के दर्पण पर
संवेदनहीनता से यूँ झुलसती तुम्हारी कविता
पूर्ण भी हो जाए मगर
तुम्हारा अपना ही अस्तित्व खो न जाए
ध्यान रखना !!

Saturday, February 11, 2017

सब कुछ तो वही है

बडा उदास महीना है
सुबह सूरज पेड़ों से झाँकता
आवारा दिन बुनता है
पिछले रात की अधूरी नींद में
अनमने सपनों के उन्वान हवा के सर्द झोंकों में कभी गालों कभी आँखों 
में क़तरा क़तरा उतरते हैं
अभी चुप है ज़रा दिन
और दिल भी उचाट
खो दिया जो इश्क़ उसको रो लूँ जी भर कर
मगर
पा लेने का भी तो था भरम भर
नए फूलों में रंग तो मगर वही हैं ना
वही उजला हरापन
बस यही आशिक उदासी है जो नई है
और सब कुछ तो वही है

Wednesday, November 12, 2014

मेरे हिस्से का मीठापन

छलनी से छान लाओ ना
वो मेरे हिस्से का मीठापन
कि सोच की व्याधि
धरातल पर
खार बिखरे हैं
कि चुभते हैं चुभाते हैं
कई सौ मन बनाते हैं
वो सारे फूल से थे
शब्द कहीं खो गए हैं
कि जिनके रंग मेरे थे
वो जिनकी ख़ुशबुओं में जी रही थी
रोज़ थोड़ा और थोड़ा
उन शब्दों ने भला
क्यों मुझ को छोड़ा
अब ये
अबोला स्पर्श तुम्हारा जब
 नई उम्मीद लाया है
तो मुझ को और जीना है
अभी कुछ और जीना है
तो तुम ही लाओ ढूँढ कर वो
मेरे हिस्से का मीठापन



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