Saturday, September 22, 2018

ये संसार

ये संसार , उस कविता की अनमनी प्रवृति है
जिसे तुमने रचा पूर्णत: भेद भाव से
छोटी छोटी फुलझड़ियों सी हँसी हंस कर तुम
बुझ जाते हो ना रात कालिख सी पोतते हुए
इस चिरायु ब्रह्माण्ड में कहीं खो जाते हो
पूछना चाहती हूँ तुमसे
व्यक्तित्व पर अलंकारिक छद्म 
परतों की संभावनाएँ
तुम ने ही रची या
स्वच्छंद रहा मनुष्य ऐसा कर पाने में
कौन सा रस मिलता रहा है तुम्हें
विनाशकारी बिम्ब, विष भरे रोज़ गढ़ते हुए
उजाड़ बस्तियों के मसले फूलों के
टूटी उम्मीदों लटकती लाशों के ....
जैसे तुम्हारी अपूर्ण कविता का ये
आख़िरी खंड रचा जा रहा हो
सभ्यताओं का विनाश प्रतिबिम्बित है
समय के दर्पण पर
संवेदनहीनता से यूँ झुलसती तुम्हारी कविता
पूर्ण भी हो जाए मगर
तुम्हारा अपना ही अस्तित्व खो न जाए
ध्यान रखना !!

No comments:

www.hamarivani.com