Wednesday, February 20, 2013

विधाता

हे विधाता
संदेह है
मुझको
क्या परस्पर किसी विरोधाभास
में
मनुष्य रचा तुमने
संवेदनाओं की वेदी चढ़ा इसे
अनगिनत भूमिकाओं में बाँध
तुम हुए विलुप्त यूँ कि
हाथ भी नहीं आते अब
और एक दिन इसी मृत्यु  जीवन
के संघर्ष में
भूल जाएंगे तुम्हे
और तुम्हारा होना न होना
हमारे हाथ होगा
फिर क्या रहोगे तुम विधाता
इसी तरह दीप्त ...?

Tuesday, February 12, 2013

स्वार्थ

अपने अपने अस्तित्व की लड़ाई में
दिशाहीन ,
खोखला अंतस ....
एक  स्वार्थ की बली
चढ़ गया
बच गया फिर भी
जीवन भर का सारांश
अल्पविराम...
एक निजी !!

Thursday, February 7, 2013

कर्मठ 'कविता'....

सभी कर्मयोगी थे
मैं न जाने कैसे
शिथिल सी बन
इधर उधर गिरती पड़ती बैठी बैठी
अनगिनत स्वप्न
...बुन चली
और मार्ग मार्ग पर कठिनाई का
एक चिट्ठा तक लिख डाला
और नाम दे दिया
मेरी 'कविता '
क्या कविता का सृजन
मात्र इतना भर था ....?
या फिर सृष्टि की उत्पत्ति जितना
ही
क्लिष्ट ?
या वृक्ष की छाया जैसा
नदिया की कल कल
बगिया में कुमुद कुमुद लहराती
मधुर मनचली सुगन्धित बेला ..ज्यों
..सरल ?
जैसा भी था
मेरी अनुभूति का सुखद अनुभव
अंजुरी भर मेरे स्वप्न .....
फिर भी कर्मठ थी
.... 'कविता'....

Tuesday, February 5, 2013

समाधान

क्यूँ समाधान खोजने निकल पडता है
हर बार ..जीवन ,
क्या मार्ग पर बढ़ते रहना ही नहीं
केवल ध्येय,
क्या लक्ष्य
नहीं कर देता सीमित
मन विराट...
ब्रह्माण्ड सी सोच का
कर रहा जीवन चक्र, ध्येय ,लक्ष्य ...,
....आदर्श विलुप्त ?
... और फिर भी लक्ष्यहीन
भोगता रह जाता
समाधान की खोज भर में
.... आजीवन कारावास ...यह मन
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