Wednesday, October 21, 2020

बैसाखियाँ


 उजला सोचती है 

वो सोच ही सकती है केवल

ऐसा नहीं है...

मगर सोच ही पा रही है 

ऐसा है....

तो उजला सोचती है

सही सलामत पैरों को 

नहीं चाहिए आसरा

नहीं चाहिए दान नहीं चाहिए प्राण

नहीं चाहिए मज़बूत हाथों को कंधे 

दुनिया भर के 

सीधी रीढ़ की हड्डी को भी 

नहीं चाहिए 

बेगरज़ सहारे 

फिर भी क्यूँ ....

 क्यूँ अतिरिक्त खोजती 

दो आंखें पल पल समर्थन 

क्यूँ  बांधना चाहता मन 

अनगिनत बंधन 

और वही...

अदृश्य बैसाखियाँ !!






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